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रामचरितमानस (अरण्यकाण्ड)

गोस्वामी तुलसीदास

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 1980
पृष्ठ :135
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2087
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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।



दो०- अति कृपाल रघुनायक सदा दीन पर नेह।
ता सन आइ कीन्ह छलु मूरख अवगुन गेह॥१॥


श्रीरघुनाथजी, जो अत्यन्त ही कृपालु हैं और जिनका दीनोंपर सदा प्रेम रहता है, उनसे भी उस अवगुणोंके घर मूर्ख जयन्तने आकर छल किया॥१॥

प्रेरित मंत्र ब्रह्मसर धावा ।
चला भाजि बायस भय पावा॥
धरि निज रूप गयउ पितु पाहीं ।
राम बिमुख राखा तेहि नाहीं॥

मन्त्रसे प्रेरित होकर वह ब्रह्मबाण दौड़ा। कौआ भयभीत होकर भाग चला। वह अपना असली रूप धरकर पिता इन्द्रके पास गया, पर श्रीरामजीका विरोधी जानकर इन्द्रने उसको नहीं रखा ॥१॥

भा निरास उपजी मन त्रासा।
जथा चक्र भय रिषि दुर्वासा॥
ब्रह्मधाम सिवपुर सब लोका।
फिरा श्रमित ब्याकुल भय सोका।


तब वह निराश हो गया, उसके मनमें भय उत्पन्न हो गया; जैसे दुर्वासा ऋषिको चक्रसे भय हुआ था। वह ब्रह्मलोक, शिवलोक आदि समस्त लोकोंमें थका हुआ और भय-शोकसे व्याकुल होकर भागता फिरा ॥२॥

काहूँ बैठन कहा न ओही।
राखि को सकइ राम कर द्रोही॥
मातु मृत्यु पितु समन समाना।
सुधा होइ बिष सुनु हरिजाना॥


[पर रखना तो दूर रहा] किसीने उसे बैठनेतकके लिये नहीं कहा। श्रीरामजीके द्रोहीको कौन रख सकता है? [काकभुशुण्डिजी कहते हैं-] हे गरुड़! सुनिये, उसके लिये माता मृत्युके समान, पिता यमराजके समान और अमृत विषके समान हो जाता है॥३॥

मित्र करइ सत रिपु कै करनी।
ता कहँ बिबुधनदी बैतरनी॥
सब जगु ताहि अनलहु ते ताता ।
जो रघुबीर बिमुख सुनु भ्राता॥


मित्र सैकड़ों शत्रुओं की-सी करनी करने लगता है। देवनदी गङ्गाजी उसके लिये वैतरणी (यमपुरीकी नदी) हो जाती है। हे भाई! सुनिये, जो श्रीरघुनाथजीके विमुख होता है, समस्त जगत् उसके लिये अग्निसे भी अधिक गरम (जलानेवाला) हो जाता है।॥ ४॥

नारद देखा बिकल जयंता।
लागि दया कोमल चित संता॥
पठवा तुरत राम पहिं ताही।
कहेसि पुकारि प्रनत हित पाही॥


नारदजीने जयन्तको व्याकुल देखा तो उन्हें दया आ गयी; क्योंकि संतोंका चित्त बड़ा कोमल होता है। उन्होंने उसे [समझाकर] तुरंत श्रीरामजीके पास भेज दिया। उसने [जाकर] पुकारकर कहा- हे शरणागतके हितकारी! मेरी रक्षा कीजिये ॥५॥

आतुर सभय गहेसि पद जाई ।
त्राहि त्राहि दयाल रघुराई॥
अतुलित बल अतुलित प्रभुताई।
मैं मतिमंद जानि नहिं पाई।


आतुर और भयभीत जयन्तने जाकर श्रीरामजीके चरण पकड़ लिये [और कहा-] हे दयालु रघुनाथजी! रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये। आपके अतुलित बल और आपकी अतुलित प्रभुता (सामर्थ्य) को मैं मन्दबुद्धि जान नहीं पाया था॥६॥

निज कृत कर्म जनित फल पायउँ।
अब प्रभु पाहि सरन तकि आयउँ॥
सुनि कृपाल अति औरत बानी।
एकनयन करि तजा भवानी॥


अपने किये हुए कर्मसे उत्पन्न हुआ फल मैंने पा लिया। अब हे प्रभु! मेरी रक्षा कीजिये। मैं आपकी शरण तककर आया हूँ। [शिवजी कहते हैं-] हे पार्वती! कृपालु श्रीरघुनाथजीने उसकी अत्यन्त आर्त [दुःखभरी] वाणी सुनकर उसे एक आँखका काना करके छोड़ दिया॥७॥

सो०- कीन्ह मोह बस द्रोह जद्यपि तेहि कर बध उचित।
प्रभु छाड़ेउ करि छोह को कृपाल रघुबीर सम॥२॥

उसने मोहवश द्रोह किया था, इसलिये यद्यपि उसका वध ही उचित था, पर प्रभु ने कृपा करके उसे छोड़ दिया। श्रीरामजीके समान कृपालु और कौन होगा? ॥२॥

रघुपति चित्रकूट बसि नाना ।
चरित किए श्रुति सुधा समाना॥
बहुरि राम अस मन अनुमाना।
होइहि भीर सबहिं मोहि जाना॥

चित्रकूटमें बसकर श्रीरघुनाथजीने बहुत-से चरित्र किये, जो कानोंको अमृतके समान [प्रिय] हैं। फिर (कुछ समय पश्चात्) श्रीरामजीने मनमें ऐसा अनुमान किया कि मुझे सब लोग जान गये हैं, इससे [यहाँ] बड़ी भीड़ हो जायगी॥१॥

सकल मुनिन्ह सन बिदा कराई।
सीता सहित चले द्वौ भाई॥
अत्रि के आश्रम जब प्रभु गयऊ ।
सुनत महामुनि हरषित भयऊ।


[इसलिये] सब मुनियोंसे विदा लेकर सीताजीसहित दोनों भाई चले! जब प्रभु अत्रिजीके आश्रममें गये, तो उनका आगमन सुनते ही महामुनि हर्षित हो गये॥२॥

पुलकित गात अत्रि उठि धाए ।
देखि रामु आतुर चलि आए॥
करत दंडवत मुनि उर लाए।
प्रेम बारि द्वौ जन अन्हवाए।

शरीर पुलकित हो गया, अत्रिजी उठकर दौड़े। उन्हें दौड़े आते देखकर श्रीरामजी और भी शीघ्रतासे चले आये। दण्डवत् करते हुए ही श्रीरामजीको [उठाकर] मुनिने हृदयसे लगा लिया और प्रेमाश्रुओंके जलसे दोनों जनोंको (दोनों भाइयोंको) नहला दिया ॥३॥

देखि राम छबि नयन जुड़ाने ।
सादर निज आश्रम तब आने।
करि पूजा कहि बचन सुहाए।
दिए मूल फल प्रभु मन भाए।


श्रीरामजीकी छबि देखकर मुनिके नेत्र शीतल हो गये। तब वे उनको आदरपूर्वक अपने आश्रममें ले आये। पूजन करके सुन्दर वचन कहकर मुनिने मूल और फल दिये, जो प्रभुके मनको बहुत रुचे॥४॥

सो०- प्रभु आसन आसीन भरि लोचन सोभा निरखि।
मुनिबर परम प्रबीन जोरि पानि अस्तुति करत॥३॥

प्रभु आसनपर विराजमान हैं। नेत्र भरकर उनकी शोभा देखकर परम प्रवीण मुनिश्रेष्ठ हाथ जोड़कर स्तुति करने लगे- ॥३॥

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